तुर्की की मदद पर बवाल: क्या बदल रहे हैं कांग्रेस नेता के सुर?

राघवेन्द्र मिश्रा
राघवेन्द्र मिश्रा

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने एक बार फिर केरल की वामपंथी सरकार को घेरा है। इस बार मुद्दा है 2023 में तुर्की को भेजी गई 10 करोड़ रुपये की मदद, जो केरल ने भूकंप के दौरान मानवीय आधार पर दी थी। लेकिन दो साल बाद थरूर ने तुर्की के वर्तमान राजनीतिक रुख़ का हवाला देते हुए इस मदद को ‘अनुचित उदारता’ करार दिया।

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क्या बोले थरूर?

“मुझे उम्मीद है कि दो साल बाद तुर्की के व्यवहार को देखते हुए केरल सरकार अपनी अनुचित उदारता पर विचार करेगी। वायनाड के लोग उन दस करोड़ रुपयों का कहीं बेहतर उपयोग कर सकते थे।” — शशि थरूर

थरूर ने सीधे वायनाड का ज़िक्र कर प्रियंका गांधी के संसदीय क्षेत्र और अपने ही गढ़ को इस बहस में शामिल किया, जिससे मामला और अधिक राजनीतिक होता गया।

CPM और कांग्रेस में तीखी बहस

थरूर की टिप्पणी पर राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास और वित्त मंत्री केएन बालागोपाल ने करारा पलटवार किया।

जॉन ब्रिटास बोले:

“शशि थरूर को ‘ऑपरेशन दोस्त’ भी याद रखना चाहिए, जिसमें मोदी सरकार ने तुर्की की मदद की थी।”

बालागोपाल ने कहा:

“यह कोई ‘बेवजह की उदारता’ नहीं थी। यह एक मानवीय फैसला था, जिसे विदेश मंत्रालय के ज़रिए क्रियान्वित किया गया।”

राजनीति या रणनीति? थरूर की मंशा पर उठे सवाल

हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के बाद बने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई थरूर को सौंपे जाने पर भी कई कांग्रेस नेताओं की भौंहें तनीं। उन्होंने पार्टी को सूचित किए बिना यह जिम्मेदारी स्वीकार की। इससे थरूर और कांग्रेस हाईकमान के रिश्तों को लेकर सवाल खड़े हुए हैं।

क्या थरूर कांग्रेस छोड़ सकते हैं?

थरूर के लगातार बीजेपी के करीब दिखाई देने वाले निर्णय, जैसे कि नितिन गडकरी से अवॉर्ड लेना, या प्रधानमंत्री के डेलिगेशन का नेतृत्व स्वीकार करना—इन्हें लेकर पार्टी में मतभेद हैं।

पूर्व राज्यसभा उपसभापति पीजे कुरियन तक ने कह दिया:

“थरूर का झुकाव बीजेपी की तरफ है, इसमें शक नहीं।”

थरूर के बयान बहस के केंद्र में, लेकिन दिशा स्पष्ट नहीं

शशि थरूर का बयान न सिर्फ एक राजनीतिक तंज था, बल्कि उन्होंने इसके जरिए कांग्रेस नेतृत्व को भी संकेत देने की कोशिश की है।

बहरहाल, यह स्पष्ट है कि थरूर की शैली हमेशा से नियंत्रित असहमति की रही है—पर अब यह असहमति इतनी बढ़ चुकी है कि चर्चा सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं रही।

‘सिंदूर’ अब सिर्फ मांग का नहीं, सरहद का भी गर्व है

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